23 अप्रैल 2010

खंजर ना दीजिये

इस अजनबी शहर में घर ना दीजिये ,
शीशों के बीच हूँ पत्थर ना दीजिये .
लेना है इम्तहां तो हैं रास्ते और भी ,
हादिसों का मौसम है खंजर ना दीजिये .
कब मेरी नीयत  पलट जाये क्या पता ,
जिन्हें शौके - गुनाह है अवसर ना दीजिये .
जो झूठ ही दोहराए मुंसिफ भी यहाँ तो ,
मेरे किसी सवाल का उत्तर ना दीजिये .

1 टिप्पणी:

  1. वाह , सुन्दर लिखा है आपने ।
    हादिसों का मौसम है खंजर ना दीजिये .

    जवाब देंहटाएं

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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