26 जुलाई 2010

शिक्षा एक वस्तु – ग्राहक या खरीदार (अंश – २)

मारे देश में आंकडो के अनुसार उच्च शिक्षा में युवा वर्ग का एक बहुत छोटा अंश ही उच्च शिक्षा के लिए जा पाता है . स्कूली शिक्षा में वैसे ही जनसँख्या का एक छोटा अंश प्रवेश करता है . और उसका भी एक छोटा अंश उसमे रह पाता है . और उसका भी एक छोटा  अंश ही उसे पूरा कर पाता है. समाज का एक तबका समझता है की शिक्षा पाने के बाद भी शायद उसका उन क्षेत्रों में प्रवेश नहीं हो जिसमें शिक्षा से प्रवेश मिल पाता है – प्रवेश बन्द कराने के और कतिपय आधार हैं जैसे भाषा ( क्षेत्रीय बनाम हिंदी बनाम अंग्रेजी ), जाति , धर्म , क्षेत्र इत्यादि . इनमे से कुछ दृष्टय और कुछ अदृष्टय . पहले लक्ष्मी और सरस्वती नहीं मिलते थे पर अब धनाढ्य वर्ग , समाज में शिक्षा को देखने की दृष्टि में परिवर्तन की वजह से और परिवारवादी उद्यमों में आये संस्थागत बदलाव की वजह से वो भी शिक्षा पाने को शामिल है . नितांत सीधे शब्दों में भारत में उच्च शिक्षा अपवादों को छोड़ दें तो कमोबेश मध्यम वर्ग के लिए , मध्यम वर्ग द्वारा , मध्यम वर्ग का आयोजन ही रहा है .


अब तक आप समझ ही चुके होंगे की मैं वर्तमान बहस को उच्च शिक्षा तक ही सीमित रख रहा हूँ. आजकल नहीं जानता पर जब हम पढते थे तब कक्षा दसवीं के बाद रिजल्ट आने पर बहुत अच्छे छात्र अगली कक्षा में विज्ञान , उसके बाद की श्रेणी के वाणिज्य , और अंतिम श्रेणी के छात्रों को स्कूल कला संकाय में प्रवेश देता था . इसमें छात्र की रूचि , उसके समाज का रुझान , संकाय की उपलब्धता , परिवार का उपादान भी थोडा बहुत होता होगा पर हम बहुसंख्यकों को लेकर ही बात करेंगे अपवादों को लेकर नहीं . फिर बारहवीं का परिणाम आने पर विज्ञान के छात्र उसके अनुसार तकनीकी, चिकित्सा , पोलिटेक्निक, कृषि वैज्ञानिक या फिर विज्ञान स्नातक होने के लिए भर्ती हो जाते थे . स्नातक होने के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं में आई .ए.एस. / समकक्ष , बैंक , अर्धसरकारी , निजी क्षेत्र की नौकरियों  इत्यादी का दौर चलता था , कुछ विज्ञान के छात्र उस समय फिर एक बार तकनीकी शिक्षा के लिए प्रयास करते और इन सब में सफल न होने वाले आदतन आगे की कक्षा में प्रवेश ले लेते थे . और कुछ करने के लिए नहीं था और ऐसा  करने की कोई लागत भी नहीं थी . और वहाँ का परिणाम आने पर फिर एक बार आई .ए .एस. , बैंक , इत्यादी का दौर चलता था और असफल होने पर फिर शोध वगैरह के लिए प्रवेश की परिपाटी . यहाँ यह रेखांकित किया जाना चाहिए की शोध के लिए वही छात्र बचते थे जो हर बार की चलनीकरण में रह जाते थे . साधारण अनुग्रह से शिक्षा से जितना शीघ्र हो कर्म क्षेत्र में प्रवेश ही स्वाभाविक था .


हर संकाय की कमोबेश यही कहानी थी . सिर्फ वाणिज्य के लिए सी.ए. , लागत शास्त्री होने या कला संकाय वालों के लिए टाइपिंग , शार्टहैण्ड और ऊपर वालों के लिए एडवरटाईजिंग इत्यादि . अगर हम ध्यान से देखें तो पाएंगे की अभियांत्रिकी में आई.आई.टी. में सबसे ऊँचे , उसके बाद के राजकीय तकनीकी , और उसके बाद कृषि तकनीकी , उसके बाद के पोलिटेक्निक में जाते थे . और फिर वहाँ से निकलने के बाद वैसी ही नौकरियां . यानि शिक्षा में जैसा  चलनी द्वारा छात्रों का वर्गीकरण होता था वैसा ही वर्गीकरण भारतीय अर्थव्यवस्था में नौकरियों का था . सरकारी , अर्धसरकारी , निजी क्षेत्र की नौकरियां . इसमें एक चीज जो उभर कर आती है वह यह की उच्चतम शिक्षा में या शोध तक की शिक्षा में वही प्रवेश लेते थे जो इस चलनीकरण में बच जाते थे .


अब ऊपर की चर्चा से यह स्पष्ट है की समाज में कार्यों , नौकरियों का स्वमान्य वर्गीकरण है . जैसे भारतीय समाज में मनुष्य का जातियों में वैसे ही आर्थिक आधार पै पेशों का . हर पेशे में प्रवेश के लिए शिक्षा जगत में भी एक समानान्तर वर्गीकरण हो चुका है . और शिक्षा धीरे धीरे उसमे प्रवेश का पासपोर्ट मान ली गयी . फिर डिग्री को समानार्थी प्रसंग में शिक्षा का पर्याय मान लिया गया . विश्वविद्यालय या महाविद्यालय डिग्री देने के कारखाने का रूप लेने लगे . बाज़ार में नकली माल आ गया . डिग्री दिलाने के ठेकेदार भी मिलने लगे. सरकारी नौकरियों में बहुत से लोगों ने दूरस्थ शिक्षा द्वारा डिग्री हासिल की . कुछ कुछ लोगों के पास ऐसी डिग्रियों की बाकायदा सूची है . यानि शिक्षा से दूरी बनाये हुए डिग्री . अब तो इसकी सी.बी.आई. द्वारा जांच भी होने लगी है . नकली हल्दी, नकली प्रसाधन सामग्री और नकली डिग्री . डिग्री पूर्ण रूप में शिक्षा का पर्याय बन चुकी है . शिक्षा कहीं पीछे छूट गयी है . ऐसा नहीं की विश्वविद्यालयों में अच्छे छात्र नहीं हैं , अच्छे प्राध्यापक नहीं हैं . अपवाद हर जगह हैं . हम व्यापक वातावरण की बात कर रहें हैं . बहुत सी नौकरियों के लिए मान्य डिग्री की आवश्यकता पर ध्यान दें या उन नौकरियों को करने वालों से पूछें की आपने जो भी सीखा उसका अपने कार्य में क्या उपयोग करतें हैं ? अधिकांश कार्यों के लिए डिग्री का तारतम्य नहीं है . अगर कक्षा १२ के बाद उन कार्यों से सम्बंधित ज्ञान दिया जाता तो शायद वो बेहतर कर रहे होते . पर हमारे समाज में जहाँ परिवार के द्वारा बहुत से कार्य वंशपरंपरा द्वारा बहुत अच्छे से व्यावसायिक शिक्षा के पर्याय के रूप  में न जाने कितनी पीढ़ियों से संजोये गए हुए हैं उसी समाज में व्यावसायिक शिक्षा विधिवत रूप में स्थापित नहीं हो पाई . मालूम नहीं आप में से कितनो नें ऐसे समाचारों पै ध्यान दिया है की – हमारे ज्यादातर स्नातक रोजगार के अयोग्य हैं . और ऐसे समाचार साधारण स्नातकों के ही नहीं "अभियांत्रिकी स्नातकों" के बारे में भी छपते रहे हैं लगातार .


छांट कर छात्रों के वर्गीकरण और कार्यों का उसके मूल्य के अनुसार वर्गीकरण से समाज में कार्य का आदर ( रेस्पेक्ट फॉर लेबर) खत्म हो गया . कुछ कार्यों को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा . बहुत से कार्य तकनीकी के विकास के बावजूद चिर-पुरातन तरीके से ही किये जाते हैं अब तक . हमारे परंपरागत मजदूर वर्ग के काम करने के औज़ार और तकनीक में मुझे नहीं दीखता कोई बदलाव आया है . संगठित श्रमिक वर्ग अपवाद होगा क्योंकि वहाँ जरूरत के अनुसार उन्हें प्रशिक्षित किया गया है . हमारे कुशल मजदूर, मैं उन्हें परंपरागत पेशे वाले मजदूर वर्ग के रूप में संबोधित करूँगा . विधिवत व्यावसायिक शिक्षा के अभाव में नए कारखानों , नए उद्यमों से दूर होते जा रहे हैं . इससे जुड़ा है उत्पादकता और उससे आमद बढने या पिछड़ने के लक्षण .


अब ग्राहक को मालूम है किस शिक्षा का बाजार में क्या मूल्य है . अभिवावक भी जानता है . यह बाजार मूल्य उच्च शिक्षा का है . पर इसका आधार तय होता है स्कूली शिक्षा के परिणाम पर. तो इस युद्ध की ओर ध्यान दें . जैसे जैसे किसी वस्तु की मांग बढती है . बाजार में उसकी आपूर्ति एक समय अंतराल में बढ़ जानी चाहिए. और वस्तु की मांग कम होने पर बहुत से कारखाने बन्द हो जाते हैं या हमारे सरीखे देश में बीमार हो जाते हैं . अगर आपूर्ती नहीं बढती तो ? उसकी काला - बाज़ारी होगी . छीना-झपटी होगी . उसे पाने के लिए द्वन्द होगा . जब मांग कम थी तब लोग कुछ कक्षाओं में स्कूल के अलावा अतिरिक्त पढाई की व्यवस्था में लगते थे . मैं जान बूझ कर प्राइवेट ट्यूटर शब्द का उपयोग करने से परहेज कर रहा हूँ . क्योंकि एक समय इसे छात्र की कमजोरी के तौर पर देखा जाता था . आज इसे न करा पाना अभिवावक की कमजोरी के रूप में देखा जाता है . ट्यूशन अब कोचिंग (परीक्षा के लिए तैयार करना) में परिवर्तित हो चुका है . लोग पहले दोस्तों से आग्रह करते थे थोडा समझा देना . फिर घर बुलाने लगे समझाने के लिए , कुछ पारिश्रमिक दे कर . मांग बढ़ी तो प्रशिक्षक झुण्ड में पढाने लगे . और मांग बढ़ी तो सत्र लगाने लगे . कुछ संस्थान इसके लिए विख्यात हो गए . और फ्रांचिजी आ गए . फिर कुछ शहर अब इस लिए विख्यात हो गए . इसमें अब कुछ लिमिटेड कंपनीयां भी शामिल हो गयीं हैं . पहले यह १२ वी से शुरू होता था फिर क्रमशः अब सुना है वर्तमान में यह ८ वी कक्षा से शुरू हो रहा है . जनसंख्या विशेष कर शहरी क्षेत्रों में जनसँख्या विस्फोट से , इसका परिणाम , तीन साल के बच्चों को स्कूल में प्रवेश हेतु परीक्षा के लिए तैयार करना तक पहुंचा है . इसमें कहीं कहीं अभिभावक का प्रशिक्षण शामिल है . सवाल कई हैं मेरे मन में ? मसलन भारतीय समाज में  एक दुराग्रह है आप इससे वाकिफ होंगे . शिक्षा का शुल्क नहीं बढ़ना चाहिए . वरना उच्च शिक्षा निर्धन लोगों की पहुँच से बाहर हो जायेगी . यह आवाज़ राजनीतिज्ञों , शिक्षाशास्त्रियों , छात्रनेताओं द्वारा प्रमुख रूप से उठाई जाती है. इसमें मध्यम वर्ग का वह तबका भी शामिल है जिसकी आवाज़ पेट्रोल के दाम बढ़ने पर उठती है . पर स्कूल की फीस , बस की फीस , किताबों के दाम , ट्यूशन की कीमत , कंप्यूटर , कराते , घुड़सवारी , कोटा या हैदराबाद या दिल्ली भेजने के खर्चे पर नहीं उठती . अलग अलग शहरों में जाकर प्रवेश की प्रादेशिक , संस्थागत , या राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा की अनगिनत चक्कियों में पिसने पर भी ऐतराज नहीं है . प्रवेश परीक्षा का आयोजन सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र दोनों के लिए अलग से एक बाज़ार और व्यवसाय हो गया है . राजनेता , अभिनेता , दफ्तरशाह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते. सिवाय केंद्रीय विद्यालयों के जहाँ अन्य स्कूलों का बाज़ार नहीं बन पाया . या जहाँ स्थानांतरण की समस्या है . और वैसे भी यह बाज़ार मूल्य से कम रियायत पर उपलब्ध है . यह आवाज़ इसलिए नहीं उठती क्योंकि यह साधन हैं अगले युद्ध में कुशल योद्धाओं को पहुँचाने से रोकने के. यह युद्ध का पूर्वाभ्यास है . प्रतियोगिता का महत्व हम सब जानते हैं . और प्रतियोगियों की सीमित संख्या संभावनाएं बढ़ा देतीं हैं . अतैव यह स्वाभाविक है की स्कूली शिक्षा के परातन पर बहस नहीं होती , होती है तो दबी जबान में . और उसके बाज़ारीकरण पर भी हमें ऐतराज नहीं है . नहीं हुआ .


बाज़ार में प्रतियोगी अन्य प्रतियोगियों के प्रवेश को रोकने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं . जिन्हें प्रबंध शास्त्र की सभ्य भाषा में "प्रवेश अवरोध " कहते हैं या प्रवेश मार्ग में रोड़े अटकाना कहते हैं बाज़ार में यह परिलक्षित होता है परिव्रार की पृष्टभूमि पर आधारित प्रवेश के अघोषित नियमावलियों , माता पिता की शैक्षिक पृष्टभूमि , एक विशेष भाषा का ज्ञान या अज्ञान , पाठ्यक्रम के इतर पुस्तकों का क्रय करने का मूल्य , गणवेश का मूल्य , बस की फ़ीस , अतिरिक्त कक्षाओं की फ़ीस , पाठ्यक्रम से इतर गतिविधियों की फ़ीस , सरस्वतीपूजा या क्रिसमस मेले के लिए चंदा उगाहने की क्षमता इत्यादि . अब इसमें वातानुकूलित कक्षागृह शामिल हुए हैं जो पहले पहाड़ों में बनाये विद्यालयों का नया प्रतिरूप है. आखिर अभिजात्य वर्ग की स्कूली शिक्षा हमेशा से अभिजात्य रही है . पहले भी जहाँ सुदामा – कृष्ण के एक ही गुरुकूल में पढाने के दृष्टान्त हैं वहीँ एकलव्य की शिक्षा पर लगे अवरोध या द्रोणाचार्य द्वारा राजकुलों तक शिक्षा सीमित रखने के दृष्टान्त हैं . कॉन्वेंट की तर्ज़ पर अंग्रेजी भाषा में शिक्षित वर्ग की बढती आर्थिक सामाजिक वर्चस्वता को देख वैसे ही विद्यालय खुलने और उसमे प्रवेश की होड़. पहले सिफारिश , फिर चंदा , फिर दान , अब स्वीकार्य होने पर भारी शुल्क . साथ ही साथ भाषाई राजनीती के चलते सरकारी / म्युनिसिपल स्कूलों में छात्र घटने लगे . इनमे अध्यापकों की नियुक्ति राजनैतिक प्रश्रयता या मानदेय से होने लगी . इन कारणों से नौकरी पाने वाले दूरस्थ स्थलों पर जाने से परहेज करते हैं . पहले वो बदली-शिक्षक रखते थे . फिर महीने में वेतन वाले दिन जाना . फिर छमाही में जाना . स्वाभाविक है जहाँ अध्यापक ही विद्यालयों और कक्षाओं से अनुपस्थित हों छात्र कैसे और क्योंकर उपस्थित रहते . शरद जोशी ने मध्य प्रदेश राज्य की रजत जयंती पर हमारा मध्य प्रदेश उर्फ नयी मध्यप्रदेश गाइड में लिखा था


"शिक्षक हो जाना हमारे राज्य का प्रिय व्यवसाय है कहीं नौकरी न मिले तो लोग शिक्षक हो जाते हैं . मिल जाए तो पत्नी को शिक्षिका बना देते हैं हमारे यहाँ दुल्हा-दुल्हन सुहागरात को भी एजुकेशन डिपार्टमेंट के बारे में बातें करते हैं ."


शरद जोशी व्यंग लेखक थे . तबादले , नियुक्ति , पाठ्यपुस्तकों की खरीदी , प्रकाशन , उनका लेखन , पाठ्यपुस्तकों में गद्य-पद्य का शामिल होना , दोपहर का भोजन , बनाना , परोसना , और डकारना . धीरे धीरे सरकारी शिक्षा में इन सब का निचोडना / दोहन.  राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों और शैक्षिक जगत के महानुभावों ने शिक्षा को आंकड़ों और कागजी खानापूर्ति तक ला खड़ा कर दिया . सरकारी शिक्षा अन्य सरकारी पराक्रमों की तरह रुग्ण या बीमार उपक्रम बनकर रह गयी . यहाँ से छात्र और शिक्षा अपना पल्लू झाड चुकें हैं . स्कूली शिक्षा का पूर्णतया बाज़ारीकरण हो गया है . स्कूली शिक्षा जो बची है वह पूर्णतया निजी क्षेत्र में  है .या केंद्रीय विद्यालयों के रूप में जो एक वर्ग विशेष के लिए पूर्णतया अनुदान आधारित है . रसोई गैस की तर्ज़ पर . सरकारी स्कूलों के ढह गए अवशेषों पर राजनीतिज्ञ, नौकरशाह , समाजशास्त्री , बुद्धिजीवी , संचार – माध्यम, प्रबुद्धजन नहीं बोलता क्योंकि वह उस बाजार से बाहर आ चुका है . परित्यक्त बाज़ार इनकी चिंता नहीं है . इस युद्ध में इससे ज्यादा कारगर "प्रवेश अवरोध " (Entry-Barriers) ईजाद नहीं हो सकते शायद .


आगे हम देख चुके हैं की किस तरह स्कूली शिक्षा उच्चशिक्षा में प्रवेश के लिए युद्ध की तैयारी मात्र होकर रह गयी है . एक शिशु के सर्वांगीण विकास और एक सबल नागरिक के रूप में विकास के सामाजिक उद्देश्यों से परे . इनकी पूर्ती भी होती होगी पर यह प्रमुख उद्देश्य न होकर गौण रह गया सा लगता है . यह स्कूली शिक्षा का उपफल (By-product) है . वर्त्तमान स्कूली शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य परीक्षा , परीक्षा के अंक , परिणाम तालिका में स्थान और एकमेव येनकेनप्रकारेण प्रवेश परीक्षा की तैय्यारी , प्रवेश परीक्षा में अंक , परिणाम तालिका में  अंक या योग्यता सूची में स्थान , और जिसकी परमप्राप्ति वांछित वर्गीकृत जगह में प्रवेश है . सीखना – सीखाना, इसमें शामिल नहीं है . सजे सजाये अध्याय , मानक प्रश्न, मानक उत्तर , मानक अंक , मानक परिणाम. कुछ भी आडा-बाँका नहीं , कुछ भी कम – जियादा नहीं . एक एक वाक्य जैसा बोला गया , जैसा लिखाया गया , सिखाया गया , जैसा अपेक्षित है उससे हटकर नहीं . कहीं कोई अतिरिक्त पूर्ण विराम , अर्ध विराम , या प्रश्न चिन्ह नहीं . बाज़ार निर्दयता पूर्वक मानकीकरण या साम्यरूपता को बढ़ावा देता है . मशीनीकरण धीरे धीरे यन्त्र मानव तक पहुँच गया है . यह पुरातनपंथी या प्रागैतिहासिक काल का हस्तशिल्प नहीं जिसमे हर कृति अद्वितीय हो . वैसे आजकल बाज़ार में हस्तरचित या विशिष्ट वस्तुएं बेहिसाब या बेलगाम या नकचढे दामों में ही मिलती हैं . हमारी स्कूल शिक्षा नौनिहालों को यंत्रमानव में परिवर्तित करने में सफल होती जा रही है . ऐसे यन्त्र मानव जिनमे जीवन है . अनुभूति है , संज्ञा है . नहीं है तो कौतूहल, उत्सुकता , जिज्ञासा . जितने भी लेखक , विचारक , चिन्तक , कवि, वैज्ञानिक उभरें हैं वह निश्चित ही किसी दुर्घटना की उपज है . और मानक उत्पाद की मांग ज्यादा होती है . उनका संवेष्टन (packaging) ,प्रबंधन (handling) आसान होता है . उसे जिस बाजार में सबसे ज्यादा दाम मिले बेचा जा सकता है . भेजा जा सकता है . वैसे ऐसे बाज़ार में नक़ल उत्पाद भी आते हैं . एक शिकायत भारतीय समाज में बार बार उठटी  है हमारे यहाँ मूल शोध कम है . हमारे यहाँ शोध में मौलिकता कम है . मौलिक चिंतन कम है . नए विचारों का अभाव है . पर हमने तो शिशु को शैशव काल से ही मौलिक रूप से पढने , प्रश्न खोजने , प्रश्न उठाने , उत्तर खोजने , उत्तर लिखने की पद्धति से परिचित ही नहीं करवाया . जिसने किया उसे प्रोत्साहित नहीं किया . जिज्ञासा, कौतूहल की जहाँ भी प्रव्रृति दिखी उसे कुचल डाला . ठोकपीट कर थोक में मानक प्रश्नों , मानक उत्तरों , मानक अंकों के सांचे में ढाल दिया . स्कूली शिक्षा का बाजारीकरण पूरा हुआ . ग्राहक और खरीदार तैयार . ठप्पा भी लग गया ( Branding). बहुत से लोग इसमें आ रहे हैं – भारती मित्तल - एयरटेल वाले , शिव नादार – एच सी एल वाले . इसके अलावा प्रचार माध्यम समूह से भास्कर समूह जैसे . अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग पैमाने पर सब अलग अलग उद्देश्य लेकर कूद पड़े हैं . खरीदार तैयार हैं . विभिन्न कीमत के अलग अलग उत्पादों हेतु .


बीच में एक प्रबंध गुरु ने बाज़ार के बारे में एक नयी सोच सामने रखी है . कंपनियों को सलाह दी की बाज़ार में पिरामिड की तलहटी में भी (Bottom of Pyramid) विकास और समृद्धि की संभावनाएं हैं . क्या स्कूली शिक्षा के ऐसे ग्राहकों के लिए बाज़ार कुछ नए उत्पाद तैय्यार करेगा ?

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