24 दिसंबर 2010

वर्ष की सीमायें लांघ


चिर परिचित गतिशील 
घूमती रही घड़ी की कील ||
नश्वर वर्ष का प्रलाप
किसका कैसा माप;
बाकी कितनी घड़ियाँ?
बाकी कितना जाप ?
जीवन कँवल - करील 
घूमती रही घड़ी की कील ||
वह  एक  नीरव संवाद 
उसका नहीं अपवाद 
आओ  मिलकर  पूछें 
किसे ले जायेगा निषाद ?
फिर इतना नहीं जटिल 
घूमती रही घड़ी की कील ||

काल चक्र वैराग्य काल 
किसको कर दे मालामाल ?
उसकी  डफली उसका राग 
अब कौन मिलाये ताल ?
वो अमर ज्योत कंदील 
घूमती रही घड़ी की कील ||
अनंत नभ में जैसे विहंग 
अनंत सागर में फ़ैली तरंग 
प्रकृत धरा पर अविराम 
प्रस्फुटित होते अनंत रंग 
सबसे मोहक रहे कपिल 
घूमती रही घड़ी की कील ||

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...