28 दिसंबर 2010

अवश्यम्भावी

स्वयंसिद्ध हो गए स्थापित 
स्वयं के अन्तः युद्ध में पराजित |
जीवन भर सत्य की खोज में लगे 
और कितनी दुविधाओं में पले |
हम से अनाड़ी को जग भाया नहीं  
और हमें कंदराओं ने पाया नहीं 
हम नियती के आश्वासनों पर जीते रहे
कर्मपुरुष थे , निस्पृह  रहे, 
जीवन में जहाँ उतार-चढाव आया नहीं-
आँखें बंद रखीं और हाथ भींचे रहे| 
उदार चरित के थे अनुदार सपने 
विश्वास रहित और बेमने,
रंगहीन , बेतरतीब , अबूझ 
कृष्णा सा श्यामवर्ण अन्धकार में असूझ 
इस  वातावरण में काल -खंड काल-जयी हो गया 
जीवन अनुरागी था वीतरागी हो गया |
अवश्यम्भावी प्रेरणा के उदक , वायु , धरा , अग्नि , आकाश !
पंचतत्वों में विलीन हो गए सारे उच्छास !!

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ ...चर्चा मंच पर आई टिप्पणी से ही आपके ब्लॉग तक पहुंची ...

    अभी आपकी तीन कविताएँ पढ़ीं ...सब ही सोचने पर मजबूर करती हुई ..
    हम से अनाड़ी को जग भाया नहीं
    और हमें कंदराओं ने पाया नहीं
    हम नियती के आश्वासनों पर जीते रहे
    कर्मपुरुष थे , निस्पृह रहे, ज़िंदगी को जीने का एक आनंद यह भी है ...
    अपने ब्लॉग पर फोलोअर्स का गैजेट लगा लें ...तो यहाँ तक पहुँचने में सरलता होगी ..आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. संगीता जी ,
    आपको लिखा पसंद आया . धन्यवाद . आपका आदेश सर आँखों पर . बटन लगा था जाने कब गायब हो गया . ध्यान नहीं गया . फिर पुनरुद्धार किया . दिखने लगा है .

    जवाब देंहटाएं

आपके समय के लिए धन्यवाद !!

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